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विडम्बना

14 जुलाई 2017

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भूमिका : यह रचना मेरे हृदय के बहुत निकट है| यह कविता मैंने अपनी स्नातक (ग्रेजुएशन) के दौरान नवभारत टाइम्स में छपी ख़बर से प्रभावित होकर रची| जिसमें गुजरात में आए भूकंप के बाद एक माँ तथा उसके नवज़ात शिशु को पूरे 5 दिनों बाद मकान के मलबे के ढ़ेर के नीचे से निकाला गया था| बाद में माँ से पूछने पर कि वो इतने दिनों तक बग़ैर कुछ खाये -पिये मलबे के ढ़ेर के तले आप स्वयं व अपने शिशु को कैसे जीवित रख सकीं ? माँ ने ईश्वर का धन्यवाद् करते हुए, जो बताया वो इतना विस्मयकारी व मार्मिक था (मेरे लिए,माँ के लिए नहीं), क्योंकि उसके लिए ये एक सामान्य कार्य था| जिसके कारण मेरे कवि हृदय (यदि आप लोग मुझे कवि कहलाने का आशीर्वाद इस रचना को पढ़ने के उपरांत देंगें) में उठते द्वंद्वों अपितु विचारों को मैंने अपनी लेखनी द्वारा शब्दों का समूह बनाकर एक कविता कहने का प्रयास किया है|


जानते हैं माँ ने क्या जवाब दिया ?"प्रारंभ में तो पहले दिन मैंने उसे अपना दूध पिलाकर उसकी भूख शांत करने की कोशिश की,किन्तु बाद में दूध आना बंद हो गया और भूख से बिलखता बालक देख मैंने अपनी तर्जनी उँगली जिसमें चोट के कारण रक्त बह रहा था उसके मुँह में डाल दी,जिससे वह शांत हुआ,किन्तु कुछ ही समय पश्चात् उसे फिर से भूख लगने पर स्वयं अपनी दूसरी उँगली काटकर निकलते लहू को उसके मुँह में डाल उसकी भूख मिटाई| इस तरह ये क्रम 5 दिनों तक चला और बाद में माँ तथा पुत्र को बेहोशी की अवस्था में मलबे के ढ़ेर से बाहर निकाला गया |"


इस मार्मिक एवं हृदय-स्पर्शी,घटना के तदुपरांत निकली पंक्तियों का नाम मैंने रखा"विडंबना" किन्तु आज मैं उसे "माँ" शीर्षक से कहने की जद्दो-जहद में हूँ !?!? फिर सोचता हूँ इस रचना के प्राणों को देखते हुए इसका नाम "विडम्बना" ही सर्वोचित है|क्योँकि जिस बेटे को पाने अथवा बचाने के लिए इस "भारत" देश में लोग मंदिर,मस्जिद, गुरूद्वारे व चर्च की सीढ़ियों को अपने क़दमों व मस्तकों से घिस देते हैं, वही बेटे अंत समय में उन्हें (माता- पिता)दो वक़्त की रोटी देने में भी समर्थ नहीं हो पाते !?!? ये विडम्बना नहीं तो और क्या है ???


वृद्धावस्था में भी हम (अन्वेष/बेटे) उनसे (माता-पिता) से कुछ न कुछ पाने की आशा रखते हैं (पेंशन,पैसा,घर,गहने इत्यादि) |


ऐसे में कुछ देने की बात तो बहुत दूर है .....यही है मेरी विडम्बना ........




एक दिन मुझसे माँ बोली,

जब मैं बूढ़ी हो जाऊँगी,

क्या......? तब भी मुझे दल्लकाओगे* ???



अभी तो मैं देती हूँ रोटी तुमको ,

तब क्या......? खाना मुझे खिलाओगे???



मैं सहती सब नाज़ तुम्हारे,

तब क्या.....? चाय पे मेरी गुर्राओगे ???



माँ बोली.....

सुनो बात पुरानी थी ,

मेरी इक बूढ़ी नानी थी,

पास में था एक छोटा बच्चा,

खा लेते मिल जाता जो कच्चा- पक्का,

पड़ा गाँव में इक सूखा,

अन्न ख़त्म बच्चा रह गया भूखा ,

माँ ने उंगली काट, बनाकर साग,

बच्चे को खिलाई ,

थोड़ी-थोड़ी कर एक दिन चलाई ,

दूसरे दिन दूसरी बहन का नम्बर आया,

एक दिन एक ने अपने को बिलकुल अकेला पाया!!!

तो माँ बोली....."बेटा" जब हाथ मेरा कट जाएगा ?!!?

तब क्या....? पानी मुझे पिलाओगे?!!?


आगे सुनो कहानी .....

जवान बेटे ने जब, हथकटी ..."बोझ"... माँ का गला था काटा,

तब भी था एक ही प्रश्न उसकी आँखों में कौंध रहा???...

बेटा.....जब मैं मर जाऊँगी,

तब क्या. ...? अग्नि मुझे दिखाओगे???...


माँ बोली,....

किन्तु विडम्बना ये है कि!!!???!!!...

आज वर्षों बाद फिर आया सूखा है,

और जवान बेटा आज,... भी भूखा है!?!?!...


पड़ोस के घर पर वो, ...मृतक माँ के समक्ष रोटी तोड़ रहा है,

और ललचाई आँखों से एकटक उसे देख रहा है ....!?!?!......


एक दिन रुआँसे गले, .... मुझसे, ... माँ बोली ....

जब मैं. ...


-मनोज कुमार खँसली (अन्वेष)


" *दल्लकाओगे (गढ़वाली बोली शब्द ) हिंदी भाषा में अर्थ - डाँटोगे "

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अद्द्भुत रचना है सर एकदम उत्कृस्ट एवं प्रेरणादाई . मैं तो आपका बड़ा प्रसंसक हूँ.

29 जुलाई 2017

योगिता वार्डे ( खत्री )

योगिता वार्डे ( खत्री )

मनोज जी सबसे पहले तो आपको नमन , आपकी रचना ने कुछ ना कहने पर मजबुर कर दिया है , आपकी एसी रचनाओं से हमारी हिन्दी का कद बढ़ता है... आशा है आगे भी ऐसे ही आप लिखते रहें.. शुभकामनाएं.. धन्यवाद!!

15 जुलाई 2017

रेणु

रेणु

आदरणीय मनोज जी ईमानदारी से कहूं तो निशब्द हूँ -- रचना का एक - एक शब्द अंतस को भिगोता जा रहा है --एक साथ अनेक संवेदनाओं से भरे इस लेख में सभी प्रश्न अनुत्तरित है -- इनका उत्तर पाना बड़ा दुष्कर कार्य है -- सांकेतिक भाषा में मन का रुदन है !!!!!!!!!!!!!!!!! क्या कहूं नमन करती हूँ आपकी सूक्ष्म संवेदनशील दृष्टि को -- जिससे कुछ भी बच पाना असंभव है !!!!!!!!!!!!!!!

14 जुलाई 2017

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