यह लेख मेरे द्वारा कुछ WhatsApp समूहों पर १८ अगस्त २०१६ से २७ नवम्बर २०१६ तक सम्प्रेषित चर्चा का संकलन है. पाठकों की सुविधा के लिए इसे 6 खण्डों में प्रकाशित कर रहा हूँ.
आज की चर्चा के दो उद्देश्य हैं- एक पिछले सप्ताह की चर्चा को आगे बढ़ाना और दूसरा पिछले सप्ताह की चर्चा पर उठाये गये कुछ प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास करना। संयोग से पिछले सप्ताह की भाँति ही इन दोनो उद्देश्यों को एक ही चर्चा में पूरित करना संभव है।
पिछले सप्ताह मैंने कहा था कि पृथ्वी मात्र अपनी धुरी पर ही नहीं घूमती, पृथ्वी की धुरी भी घूमती है। इस कारण पृथ्वी से दृश्य खगोलीय पिंडों की गति और स्थिति की गणना भी उतनी ही जटिल हो जाती है।
ग्रहों की स्थिति की गणना में इसे एक संशोधन के रूप में लिया जाता है।
इस संशोधन को प्राय: अयनांश या अयनांश संशोधन भी कहा जाता है।
पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने की गति की तुलना किसी लट्टू से की जा सकती है।
यदि आपने लट्टू की गति को ध्यान से देखा होगा तो आपने देखा होगा कि लट्टू न सिर्फ अपनी धुरी पर घूमता है बल्कि उसकी धुरी भी शंकुलाकार (conical) पथ पर घूमती है।
लट्टू की धुरी का निचला सिरा भूमि के संपर्क में होने के कारण स्थिर रहता है और ऊपरी सिरा एक वृत्ताकार कक्षा में आवर्तन करता है। धुरी के सापेक्ष यह गति एक शंकु के रूप में दिखाई देती है।
इसी प्रकार पृथ्वी की धुरी का ऊपरी सिरा अर्थात उत्तरी ध्रुव अपनी एक भिन्न कक्षा में आवर्तन करता है। इसका आवर्तन काल लगभग २७००० वर्ष है।
इसके कारण पृथ्वी की धुरी का सूर्य के सापेक्ष निरंतर परिवर्तित होता रहता है किन्तु अत्यन्त धीमी गति से।
आज के समय में पृथ्वी की धुरी का सूर्य के सापेक्ष झुकाव २३.४ अंश है।
आईये अब इसके संदर्भ में उत्तरायण की चर्चा करें।
सर्वप्रथम आईये पहले समझें कि उत्तरायण का क्या अर्थ है। आपने इससे मिलते जुलते कई और शब्द सुने होंगे जैले कि रामायण, परायण इत्यादि।
अयन का शाब्दिक अर्थ है उस दिशा में चलना। इसके अनुसार उत्तरायण का अर्थ हुआ उत्तर दिशा में चलना, किसका? सूर्य का।
सूर्य की पृथ्वी के सापेक्ष आभासी गति के चार महत्वपूर्ण पड़ाव हैं।
ये चार पड़ाव दो प्रकार के युग्म के रूप में देखे और समझे जा सकते हैं। ये युग्म सूर्य की आभासी कक्षा पर परस्पर १८० अंश पर स्थित हैं।
पहला युग्म है संक्रन्ति। जैसा मैंने पिछले सप्ताह कहा था संक्रन्ति वह तिथि है जब सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है। इस प्रकार एक वर्ष में १२ राशियों की १२ संक्रान्तियाँ होती हैं। किन्तु इन १२ संक्रान्तियों में से २ संक्रान्तियाँ प्रमुख हैं- मकर और कर्क संक्रान्तियाँ।
इन दो संक्रान्तियों का खगोलीय महत्व यह है कि मकर संक्रान्ति पर सूर्य दक्षिण में अपनी अन्तिम अवस्था में होता है और मकर संक्रान्ति के पश्चात सूर्य दक्षिण दिशा से उत्तर दिशा में चलना प्रारंभ करता है।
यह क्षण उत्तरायण की शाब्दिक परिभाषा पर खरा उतरता है। सूर्य की आभासी कक्षा का दूसरा महत्वपूर्ण युग्म है विषुव। दो विषुव हैं वसन्त विषुव और शरद विषुव। विषुव की तिथि को दिन और रात्रि का अन्तराल समान होता है क्योंकि विषुव तिथियों को सूर्य विषुवत रेखा पर होता है। वसन्त विषुव पर सूर्य दक्षिणी गोलार्ध से उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश करता है और शरद विषुव पर इसका ठीक उल्टा होता है।
आज के लिये इस चर्चा को यहीं विराम देता हूँ। कल इस विषय पर आगे चर्चा करूँगा।
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आज की चर्चा भी कल की भाँति ही द्विउद्देश्यीय है- एक उद्देश्य है कल की चर्चा को आगे बढ़ाना और दूसरा आपके द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करना।
कल मैंने अयनांश का उल्लेख किया था। यह संभवत: ज्योतिष शास्त्र का सर्वाधिक विवादित विषय रहा है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र जिसे वैदिक ज्योतिष भी कहते हैं जिस प्राचीन ग्रंथ पर आधारारित है वह है वराहमिहिर द्वारा संकलित, संपादित और कुछ हद तक संशोधित - सूर्य सिद्धांत। वराहमिहिर ५ शताब्दि के प्रमुख गणितज्ञ और खगोल वै ज्ञान िक थे जिन्होंने इस विषय को आर्यभट्ट के संपर्क में आने के बाद चुना था।
आर्यभट्ट और वराहमिहिर को त्रिकोणमिति का जनक माना जाता है। उन्होंने अपने ग्रन्थों में ज्या और कोज्या (sin and cos) का उल्लेख किया है। ज्या किस प्रकार अरब में पहुँच कर जिब हुआ और कैसे अरब के रास्ते यूरोप पहुँच कर sin बना प्रकरण इस प्रकरण की चर्चा फिर कभी।
वराहमिहिर वास्तव में सूर्य सिद्धान्त के रचयिता नहीं थे। सूर्य सिद्धान्त का असली रचयिता मयासुर को माना जाता है जिसका उल्लेख रामायण में हुआ है। मय रावण की पत्नी मंदोदरी का पिता था।
मेरा अनुमान थोड़ा भिन्न है। मेरा मानना है कि मय द्वारा रचित सूर्य सिद्धान्त संभवत: माया सभ्यता से आया है। माया सभ्यता भारतीय सभ्यता जितनी ही प्राचीन थी और मय देश दक्षिणी अमरीका में वहाँ बसा था जहाँ आज कोलंबिया और वेनेंज़ुएला स्थित है।
माया सभ्यता द्वारा विकसित कैलेंडर २०१२ में काफ़ी चर्चा में था किन्तु यह चर्चा भी फिर कभी।
अब उन प्रश्नों के उत्तर देने की सही भूमिका बन चुकी है जो कुछ सदस्यों ने उठाये थे।
प्रश्न यह था कि क्या उत्तरायण और मकर संक्रान्ति एक ही तिथि है। यदि है तो solstice २१ दिसंबर को और मकर संक्रान्ति १४ जनवरी को क्यों पड़ती है।
माया सभ्यता के लोग सम्भवतः भारत से ही गए है। उस समय अलास्का और रूस आपस में जुड़े थे
Solstice और उत्तरायण एक ही हैं। सूर्य सिद्धान्त के अनुसार उत्तरायण और मकर संक्रान्ति एक ही तिथी पर पड़ते थे किन्तु पृथ्वी की धुरी के आवर्तन के कारण मकर संक्रान्ति जो लगभग २००० वर्ष पूर्व २१ दिसंबर को पड़ती थी पृथ्वी की धुरी के खिसकने के कारण आज १४ जनवरी तक खिसक गयी है।
दो प्रकार के ज्योतिष शास्त्र हैं- सायन और निरायन। भारतीय ज्योतिष शास्त्र निरायन सिद्धान्त पर आधारित है और पश्चिमी ज्योतिष शास्त्र सायन पद्धति पर आधारित है।
अयनांश संशोधन की आवश्यकता निरायन पद्धति में ही होती है, सायन पद्धति में पृथ्वी की धुरी का विस्थापन अपने आप सम्मिलित होता है। यही कारण है कि पश्चिमी ज्योतिष के अनुसार मकर संक्रान्ति आज भी २१ दिसंबर को ही पड़ती है जो तिथि उत्तरायण की है।
भारतीय ज्योतिष में अयनांश संशोधन को लेकर मतैक्य नहीं रहा है और भिन्न भिन्न ज्योतिषज्ञ अयनांश संशोधन के भिन्न भिन्न सिद्धान्त मानते रहे हैं।
इस विषमता का संज्ञान लेते हुए नेहरू के शासनकाल में १९५७ में एन सी लाहिरी समिति का गठन हुआ जिसका उद्देश्य अयनांश संबन्धित विषमताओं का समाधान खोजना था।
फिर क्या हुआ? इसकी चर्चा फिर कभी। आज की चर्चा को यहीं विराम देता हूँ।
शेष अगले भाग में.....