1. पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले का एक गांव है टुटुवारी. यहां की एक महिला हैं. नाम कोई नहीं जानता. सभी लोग उन्हें सुदामा बो के नाम से जानते हैं. सुदामा बो यानी सुदामा की पत्नी. ये एक सामान्य प्रचलित शब्द है, जो किसी की पत्नी के लिए इस्तेमाल किया जाता है. अब वो और उसकी जैसी तमाम औरतें शायद खुद अपना नाम भी भूल गई होंगी. सरकार की आरक्षण सूची के लिहाज से वो एसटी हैं. गांव के लोग उन्हें बियार जाति में रखते हैं. उनके बेटे की उम्र 35 साल है. खेतों में काम करता है. बेटे की पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछने पर सुदामा बो कहती हैं,
खाए खातिर त पैसे ना रहल ह, पढ़े कहां से जइतन. स्कूल जाए के उमिर में त खेत में काम कके पइसा कमाए लागल रहलन. (खाने के लिए पैसे नहीं थे, पढ़ा कहां से पाती. स्कूल जाने की उम्र हुई तो खेतों में काम करके पैसे कमाने लगा.)
क्या खिलाती थीं का जवाब देते हुए कहती हैं-
मूस मार के खियावत रहनी ह. उहे खा के त एतना बड़ भइल बाड़न. (चूहे मार के खिलाती थी. उसी को खा के तो इतना बड़ा हुआ है.)
उनके बेटे का भी एक बेटा है, नाम है मंगरू. उसका नाम लेते ही सुदामा बो की आंखों में चमक आ जाती है. मंगरू पढ़ने जाता है. उसको खिलाने के लिए पैसे हैं, पर कहती हैं,
ना, ओकरो के खिआवे के पैसा नइखे, लेकिन स्कूल जाला त ओइजा खाए के मिल जाला. मास्टर लोग स्कूल में खाना बनवावेलन, उहे मंगरुओ खा ले ला. (नहीं, उसको भी खिलाने के लिए पैसे नहीं हैं. स्कूल जाता है तो वहां खाना मिल जाता है. स्कूल में मास्टर लोग खाना बनवाते हैं, वहीं मंगरू भी खा लेता है.)
2. बिहार का जिला है बक्सर. वहां राजपुर ब्लॉक में एक गांव है हेठुआ. 50 साल की एक महिला है. बेटा खेतों में काम करता है. उनका पोता स्कूल जाता है. बेटे को क्यों नहीं पढ़ाया, इस पर बोलीं,
मजदूर आदमी हइं जा. लइका पढ़े जाइ, त खेत में काम केतरे होई. काम ना होई त खानो ना मिली. एहिसे पढ़े ना भेजनी. काम करे लगलन त दू पैसा आवे लागल. (हम मजदूर लोग हैं. लड़का पढ़ने जाएगा, तो खेतों में काम कैसे होगा. काम नहीं होगा तो खाना भी नहीं मिलेगा, इसलिए पढ़ने नहीं भेजा. काम करने लगा तो पैसे भी आने लगे.)
लेकिन अब तो खेतों में भी काम मशीनों से होने लगा है, पहले कैसे खाती थीं. वो बताती हैं,
फसल से अनाज और भूसा अलग-अलग करने के लिए बैलों का इस्तेमाल किया जाता था. फसलों का गट्ठर खलिहान में डाल दिया जाता था. बैल पैरों से अनाज को रौंदते थे, जिससे अनाज और भूसा अलग-अलग हो जाता था. इस दौरान बैल अनाज खाते भी थे. उनके गोबर से आए अनाज को धुलकर ये लोग खाते थे और बच्चों को भी खिलाते थे.
अब की स्थिति के सवाल पर वो कहती हैं,
अब खेतों में काम कर अपना गुजारा होता है. मेरा जो पोता है, वो स्कूल जाता है और वहां उसे खाना मिल जाता है.
3. राजस्थान की राजधानी है जयपुर. वहां का एक इलाका है भाकरोटा. परिवेश थोड़ा ग्रामीण है. वहां पर एक प्राथमिक स्कूल है. वहां के एक टीचर बताते हैं कि मिड-डे मील में खाने के लिए दिया जा रहा पैसा पहले से ही कम है. ऊपर से कमीशनखोरी ने इस योजना में पलीता लगा रखा है. जितना पैसा आता है, उतने में हम किसी तरह से बच्चों का पेट भरने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन इस काम में सबसे बड़ी दिक्कत ग्राम प्रधानों की है. स्कूल में मिड-डे मील के लिए जो पैसा आता है, वो बिना ग्राम प्रधान के सिग्नेचर के निकाला नहीं जा सकता है. अपने ही गांव के बच्चों के लिए आए पैसे से भी प्रधान को कमीशन चाहिए होता है. इसके बिना वो पैसे की स्वीकृति ही नहीं देता है. ऐसे में पहले से ही कम आ रहा बजट और भी कम हो जाता है. वो बताते हैं कि सरकार कम से कम इतना करे कि मिड-डे मील का पैसा सीधे स्कूल के खाते में भेज दिया जाए और ग्राम प्रधान के साथ ही गांव के कुछ लोगों की एक कमिटी बनाकर इसकी निगरानी की जाए.
4. यूपी का एक जिला है गाजीपुर. पूर्वी उत्तर प्रदेश में आता है. वहां का एक गांव है. ग्राम प्रधान किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहते, सो नाम नहीं बतात रहे हैं. किसान आबादी ज्यादा है. इतने पैसे हैं कि अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ा सकें, इसलिए भेज देते हैं. लेकिन उनके खेतों में काम करने वाले लोग मजदूर हैं. उन्हें बच्चों को स्कूल भेजने से बेहतर लगता है खेतों में मजदूरी करवाना, लेकिन वो बच्चों को स्कूल भेजते हैं. खेत में काम करने वाल एक मजदूर बताता है कि स्कूल भेजते हैं तो खाने को मिल जाता है. ग्राम प्रधान कहते हैं कि स्कूल है, तो खाना तो बनवाना ही पड़ता है. खाने के नाम पर पैसा इतना कम आता है कि हम कुछ नहीं कर सकते. कम से कम 400 बच्चे अगर एक स्कूल में हों और खाना बल्क में बने तो कुछ हद तक इस खाने को मुहैया करवाया जा सकता है. उनके गांव की स्थिति पूछने पर वो कहते हैं कि बच्चे तो हमारे ही हैं. पैसे कम पड़ते हैं फिर भी बच्चों को खाना मुहैया करवाना पड़ता है.
अब एक दूसरी स्थिति देखिए:
2015-16 में देश के छह लाख घरों में एक सर्वे किया गया था. इसमें सामने आया था कि 36 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. जो बच्चे स्कूल जा रहे हैं, उनमें कुपोषण ज्यादा है. सर्वे में सामने आया था कि स्कूल जाने वाले 38 फीसदी बच्चे कुपोषण का सामना कर रहे हैं. पश्चिम बंगाल का पुरुलिया जिला और महाराष्ट्र का नंदरबार ऐसे जिले हैं, जहां हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है. संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़ों को मानें तो पांच साल से कम उम्र के 10 लाख बच्चे हर साल कुपोषण की वजह से मर जाते हैं. विश्व बैंक ने वैश्विक तौर पर कुपोषण की तुलना ब्लैक डेथ नामक महामारी से की है. ब्लैक डेथ एक बीमारी थी जिसकी वजह से 18वीं सदी में यूरोप की जनसंख्या के एक बड़े हिस्से की मौत हो गई थी.
42 साल से चल रही है सरकार की योजना
कुपोषण की गंभीर स्थिति को देखते हुए तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने दो अक्टूबर 1975 को इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवेलपमेंट सर्विसेज (आईसीडीएस) की शुरुआत की थी. मकसद था बच्चों को कुपोषण से बचाना. योजना के 42 साल बीत चुके हैं. अब हालात ये हैं कि हम अपने पड़ोसी देश बांग्लादेश को तो छोड़िए, सबसे पिछड़े देशों में गिने जाने वाले कॉन्गो से भी खराब हालात में हैं.
छह रुपये में कैसे दूर होगा कुपोषण
कुपोषण के खराब हालात से निपटने के लिए केंद्र सरकार फिलहाल इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवेलपमेंट सर्विसेज (आईसीडीएस) के तहत लगभग 10 करोड़ बच्चों, प्रेगनेंट महिलाओं और स्तनपान करवाने वाली महिलाओं को पोषक आहार देती है. इसके लिए प्रतिदिन प्रति व्यक्ति छह से नौ रुपये तक खर्च किया जाता है. ये रकम इतनी छोटी है कि पेट भरने की तो बात छोड़ ही दें, किसी भी हालत में एक बच्चे के लिए इस पैसे से एक ग्लास दूध भी नहीं आ सकता है. ऐसे में कुपोषण को दूर करना एक ख्वाब ही है.
पैसे बढ़ाने का है प्रस्ताव, लेकिन फायदा क्या होगा
छह से नौ रुपये का खर्च 2011 के शासनादेश के मुताबिक है. इसे देखते हुए महिला और बाल विकास मंत्रालय ने प्रस्ताव दिया है कि एक बच्चे पर किए जा रहे खर्च में इजाफा किया जाए. बढ़ोतरी का प्रस्ताव भी मात्र दो से तीन रुपये का ही है, जो किसी हाल में एक बच्चे की जरूरत को पूरा करने के लिए काफी नहीं है.
अभी केंद्र सरकार की ओर से जो पैसे बढ़ाने का जो प्रस्ताव आया है, उसके मुताबिक छह साल से कम उम्र के सामान्य बच्चे पर प्रतिदिन पोषक आहार के लिए खर्च बढ़ाकर आठ रुपए किया जाएगा, जो फिलहाल छह रुपये है. गर्भवतियों और स्तनपान करवाने वाली महिलाओं को फिलहाल पोषण के लिए सात रुपए मिलते हैं, जिसे बढ़ाकर 9.5 रुपए और कुपोषित बच्चों के लिए 9 रुपए की बजाय 12 रुपए कर दिया जाएगा.
113 जिलों की स्थिति जानकर सिहरन पैदा होती है
देश में 113 जिले ऐसे हैं, जहां हालत बेहद खराब है. इनमें यूपी, बिहार और मध्यप्रदेश के जिलों की संख्या सबसे ज्यादा है. 30 जिलों को तो खुद नीति आयोग ही पिछड़ा बता चुका है. इसके अलावा नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट कहती है कि कुपोषण की वजह से देश के 38 फीसदी बच्चों का कद ही नहीं बढ़ पा रहा है. यूपी और बिहार की स्थिति और भी खराब है, जहां 50 से लेकर 65 फीसदी तक के बच्चों का कद नहीं बढ़ रहा है. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली का नॉर्थ वेस्ट जिला भी ऐसे ही पिछड़े जिलों में शामिल है, जहां कद न बढ़ने वाले बच्चों का औसत 38.6 फीसदी है. 2016 ग्लोबल न्यूट्रिशन की रिपोर्ट के मुताबिक कम कद और वजन के बच्चों के मामले में दुनिया के 130 देशों में भारत का स्थान 120वां है.
मिड डे मील भी बेअसर
स्कूल जाने वाले बच्चों को कुपोषण से बचाने के लिए केंद्र सरकार की ओर से 1995 में मिड-डे मील योजना की शुरुआत हुई थी. 2007 में इस योजना का पूरे देश में विस्तार हुआ. इस योजना के तहत देशभर में कुपोषण के शिकार बच्चों को सीधे फायदा पहुंचाने के लिए उन्हें स्कूल लाने की कवायद की गई. स्कूल में मौजूदगी के दौरान बच्चों को पोषण युक्त खाने का इंतजाम किया गया. हालांकि इसके बाद भी स्कूल जाने वाले 38 फीसदी बच्चे कुपोषित की श्रेणी में हैं.
मिड-डे मील के मेन्यू और होने वाले खर्च में है बड़ा अंतर
मिड-डे मील योजना स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए है. इसके तहत पहली से पांचवी तक के बच्चे के लिए खाने का बजट प्रति बच्चा 4.13 रुपए है. 5वीं से 8वीं तक के बच्चों के लिए बजट 6.18 रुपए है. इस योजना के मुताबिक बच्चों को दिया जाने वाला खाना ऐसा होता है
आइटम प्राइमरी मिडिल
कैलोरी 450 700
प्रोटीन 12 20
चावल/गेहूं (gm) 100 150
दाल(gm) 20 30
सब्जियां (gm) 50 75
तेल और फैट (gm) 5 7.5
सरकार तो ये आंकड़े गिनाती है…
25.25 लाख खाना बनाने वाले पूरे देश में मिड-डे मील बनाने में लगे हुए हैं
11.43 हजार स्कूलों में बनता है मिड-डे मील
9.78 करोड़ बच्चों को मिलता है गरम खाना
7.81 लाख किचन और स्टोर बने हैं मिड-डे मील के लिए
इतनी दिक्कतें हैं फिर भी बजट घटा दिया
सरकार के ही सर्वे में ये साफ कर दिया गया है कि स्कूल जाने वाले 38 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं. फिर भी 2014-15 के बजट 13215 करोड़ रुपए की तुलना में 2017-18 के बजट में कटौती कर इसे 10,000 करोड़ पर कर दिया गया है. 2007 से 2017 तक के मिड-डे मील पर खर्च किया गया सरकारी आंकड़ा ये है
इस आंकड़े में BE का मतलब अनुमानित बजट, RE का मतलब रिवाइज्ड एस्टीमेट और Release का मतलब जारी किया हुआ पैसा है.