shabd-logo

ताटंक छंद "नारी की पीड़ा"

27 नवम्बर 2020

515 बार देखा गया 515
featured image

ताटंक छंद "नारी की पीड़ा"


सदियों से भारत की नारी, पीड़ा सहती आयी हो।

सिखलाया बचपन से जाता, तुम तो सदा परायी हो।

बात बात में टोका जाता, दूजे घर में जाना है।

जन्म लिया क्या यही लिखा कर? केवल झिड़की खाना है।।1।।


घोर उपेक्षा की राहों की, तय करती आयी दूरी।

नर-समाज में हुई नहीं थी, आस कभी तेरी पूरी।

तेरे थे अधिकार संकुचित, जरा नहीं थी आज़ादी

नारी तुम केवल साधन थी, बढ़वाने की आबादी।।2।।


बंधनकारी तेरे वास्ते, आज्ञा शास्त्रों की नारी।

घर के अंदर कैद रही तुम, रीत रिवाजों की मारी।

तेरे सर पर सदा जरूरी, किसी एक नर का साया। पिता, पुत्र हो या फिर वह पति, आवश्यक उसकी छाया।।3।।


देश गुलामी में जब जकड़ा, तेरी पीड़ा थी भारी।

यवनों की कामुक नज़रों का, केंद्र देह तेरा नारी।

कर गह यवन पकड़ ले जाते, शासक उठवाते डोली।

गाय कसाई घर जाती लख, बन्द रही सबकी बोली।।4।।


यौवन की मदमाती नारी, भारी थी जिम्मेदारी।

तेरे हित पीछे समाज में, इज्जत पहले थी प्यारी।

पीहर छुटकारा पाने को, बाल अवस्था में व्याहे।

दे दहेज का नाम श्वसुर-गृह, कीमत मुँहमाँगी चाहे।।5।।


घृणित रीतियाँ ये अपनाना, कैसी तब थी लाचारी।

आन, अस्मिता की रक्षा की, तुम्ही मोहरा थी नारी।

सदियों की ये तुझे गुलामीे, गहरी निद्रा में लायी।

पर स्वतन्त्रता नारी तुझको, अब तक उठा नहीं पायी।।6।।


कभी देश में हुआ सवेरा, पूरा रवि नभ में छाया।

पर समाज इस दास्य-नींद से, अब तक जाग नहीं पाया।

नारी नारी की उन्नति में, सबसे तगड़ा रोड़ा है।

घर से ही पनपे दहेज अरु, आडम्बर का फोड़ा है।।7।।


नहीं उमंगें और न उत्सव, जब धरती पे आती हो।

नेग बधाई बँटे न कुछ भी, हृदय न तुम हर्षाती हो।

कर्ज समझ के मात पिता भी, निर्मोही बन जाते हैं।

खींच लकीरें लिंग-भेद की, भेद-भाव दर्शाते हैं।।8।।


सभ्य देश में समझी जाती, जन्म पूर्व पथ की रोड़ी।

हद तो अब विज्ञान रहा कर, कसर नहीं कुछ भी छोड़ी।

इस समाज में भ्रूण-परीक्षण, लाज छोड़ तेरा होता।

गर्भ-मध्य तेरी हत्या कर, मानव मानवता खोता।।9।।


घर से विदा तुझे करने की, चिंता जब लग जाती है।

मात पिता के आड़े दुविधा, जब दहेज की आती है।

छलनी होता मन जब सुनती, घर में इसी कहानी को।

कोमल मन बेचैन कोसता, बोझिल बनी जवानी को।।10।।


पली हुई नाजों से कन्या, जब पति-गृह में है आती।

सास बहू में घोर लड़ाई, अधिकारों की छा जाती।

माँ की ममता मिल पाती क्या, पीहर में जो छोड़ी थी।

छिन्न भिन्न होने लग जाती, आशाएँ जो जोड़ी थी।।11।।


तेरी पीड़ा लख इस जग में, कोई सीर नहीं बाँटा।

इस समाज ने तुझे सदा से, समझा आँखों का काँटा।

जीवन की गाड़ी के पहिये, नर नारी दोनों होते।

नारी जिसने सहा सहा ही, 'नमन' उसे जगते सोते।।12।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

तिनसुकिया

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' की अन्य किताबें

वीरेंद्र कुमार गुप्ता

वीरेंद्र कुमार गुप्ता

बहुत सुन्दर लिखा है आपने. परन्तु अब बदलते परिवेश का भी कुछ जोड़ सकते हैं. धन्यवाद वीरेंद्र

27 नवम्बर 2020

18
रचनाएँ
छंदप्रभा
0.0
छंद के साधकों के लिए उपयोगी पुस्तक।
1

32 मात्रिक छंद "शारदा वंदना"

19 अक्टूबर 2019
1
1
1

32 मात्रिक छंद "शारदा वंदना"कलुष हृदय में वास बना माँ,श्वेत पद्म सा निर्मल कर दो ।शुभ्र ज्योत्स्ना छिटका उसमें,अपने जैसा उज्ज्वल कर दो ।।शुभ्र रूपिणी शुभ्र भाव से,मेरा हृदय पटल माँ भर दो ।वीण-वादिनी स्वर लहरी से,मेरा कण्ठ स्वरिल माँ कर दो ।।मन उपवन में हे माँ मेरे,कवि

2

आँसू छंद "कल और आज"

20 अक्टूबर 2019
0
0
0

आँसू छंद "कल और आज"भारत तू कहलाता था, सोने की चिड़िया जग में।तुझको दे पद जग-गुरु का, सब पड़ते तेरे पग में।तू ज्ञान-ज्योति से अपनी, संपूर्ण विश्व चमकाया।कितनों को इस संपद से, तूने जीना सिखलाया।।1।।तेरी पावन वसुधा पर, नर-रत्न अनेक खिले थे।ब

3

अहीर छंद "प्रदूषण"

20 अक्टूबर 2019
0
1
0

अहीर छंद "प्रदूषण"बढ़ा प्रदूषण जोर।इसका कहीं न छोर।।संकट ये अति घोर।मचा चतुर्दिक शोर।।यह भीषण वन-आग।हम सब पर यह दाग।।जाओ मानव जाग।छोड़ो भागमभाग।।मनुज दनुज सम होय।मर्यादा वह खोय।।स्वारथ का बन भृत्य।करे असुर सम कृत्य।।जंगल किए विनष्ट।सहता है जग कष्ट।।प्राणी सकल कराह।भरते दारुण आह।।धुआँ घिरा विकराल।ज्यों

4

हरिणी छंद "राधेकृष्णा नाम-रस"

4 अक्टूबर 2020
0
0
0

हरिणी छंद "राधेकृष्णा नाम-रस"मन नित भजो, राधेकृष्णा, यही बस सार है।इन रस भरे, नामों का तो, महत्त्व अपार है।।चिर युगल ये, जोड़ी न्यारी, त्रिलोक लुभावनी।भगत जन के, प्राणों में ये, सुधा बरसावनी।।जहँ जहँ रहे, राधा प्यारी, वहीं घनश्याम हैं।परम द्युति के, श्रेयस्कारी, सभी पर

5

ताटंक छंद "नारी की पीड़ा"

27 नवम्बर 2020
0
2
2

ताटंक छंद "नारी की पीड़ा"सदियों से भारत की नारी, पीड़ा सहती आयी हो।सिखलाया बचपन से जाता, तुम तो सदा परायी हो।बात बात में टोका जाता, दूजे घर में जाना है।जन्म लिया क्या यही लिखा कर? केवल झिड़की खाना है।।1।।घोर उपेक्षा की राहों की, तय करती आयी दूरी।नर-समाज में हुई नहीं थी,

6

ग्रंथि छंद (गीतिका, देश का ऊँचा सदा, परचम रखें)

27 नवम्बर 2020
0
0
0

ग्रंथि छंद (गीतिका, देश का ऊँचा सदा, परचम रखें)2122 212, 2212देश का ऊँचा सदा, परचम रखें,विश्व भर में देश-छवि, रवि सम रखें।मातृ-भू सर्वोच्च है, ये भाव रख,देश-हित में प्राण दें, दमखम रखें।विश्व-गुरु भारत रहा, बन कर कभी,देश फिर जग-गुरु बने, उप-क्रम रखें।देश का गौरव सदा, अक्षुण्ण रख,भारती के मान को, चम-

7

अनुष्टुप छंद "गुरु पंचश्लोकी"

13 दिसम्बर 2020
0
0
0

सद्गुरु-महिमा न्यारी, जग का भेद खोल दे। वाणी है इतनी प्यारी, कानों में रस घोल दे।। गुरु से प्राप्त की शिक्षा, संशय दूर भागते। पाये जो गुरु से दीक्षा, उसके भाग्य जागते।। गुरु-चरण को धोके, करो र

8

धुनी छंद "फाग रंग"

15 मार्च 2021
0
0
0

धुनी छंद "फाग रंग"फागुन सुहावना।मौसम लुभावना।चंग बजती जहाँ।रंग उड़ते वहाँ।बालक गले लगे।प्रीत रस हैं पगे।नार नर दोउ ही।नाँय कम कोउ ही।।राग थिरकात है।ताल ठुमकात है।झूम सब नाचते।मोद मन मानते।।धर्म अरु जात को।भूल सब बात को।फाग रस झूमते।एक सँग खेलते।।===========लक्षण छंद:-"भाजग" रखें गुनी।'छंद' रचते 'धुन

9

मनोज्ञा छंद "होली"

15 मार्च 2021
0
0
0

मनोज्ञा छंद "होली"भर सनेह रोली।बहुत आँख रो ली।।सजन आज होली।व्यथित खूब हो ली।।मधुर फाग आया।पर न अल्प भाया।।कछु न रंग खेलूँ।विरह पीड़ झेलूँ।।यह बसंत न्यारी।हरित आभ प्यारी।।प्रकृति भी सुहायी।नव उमंग छायी।।पर मुझे न चैना।कटत ये न रैना।।सजन य

10

रोचक छंद "फागुन मास"

15 मार्च 2021
0
0
0

रोचक छंद "फागुन मास"फागुन मास सुहावना आया।मौसम रंग गुलाल का छाया।।पुष्प लता सब फूल के सोहे।आज बसन्त लुभावना मोहे।।ये ऋतुराज बड़ा मनोहारी।दग्ध करे मन काम-संचारी।।यौवन भार लदी सभी नारी।फागुन के रस भीग के न्यारी।।आज छटा ब्रज में नई राचे।खेलत फाग सभी यहाँ नाचे।।गोकुल ग्राम उछाह में झूमा।श्याम यहाँ हर राह

11

आल्हा छंद "आलस्य"

21 अप्रैल 2021
0
0
0

आल्हा छंद "आलस्य"कल पे काम कभी मत छोड़ो, आता नहीं कभी वह काल।आगे कभी नहीं बढ़ पाते, देते रोज काम जो टाल।।किले बनाते रोज हवाई, व्यर्थ सोच में हो कर लीन।मोल समय का नहिं पहचाने, महा आलसी प्राणी दीन।।बोझ बने जीवन को ढोते, तोड़े खटिया बैठ अकाज।कार्य-काल को व्यर्थ गँवाते, मन म

12

उल्लाला छंद (माँ और उसका लाल)

21 अप्रैल 2021
0
0
0

उल्लाला छंद (माँ और उसका लाल)एक भिखारिन शीत में, बस्ते में लिपटाय के।अंक लगाये लाल को, बैठी है ठिठुराय के।।ममता में माँ मग्न है, सोया उसका लाल है।माँ के आँचल से लिपट, बेटा मालामाल है।।चिथड़ों में कुछ काटते, रक्त जमाती रात को।या फिर ताप अलाव को, गर्माहट दे गात को।।कहीं रिक्त हैं कोठियाँ, सर पे कहीं न

13

उड़ियाना छंद "विरह"

21 अप्रैल 2021
0
0
0

उड़ियाना छंद "विरह"क्यों री तू थमत नहीं, विरह की मथनिया।मथत रही बार बार, हॄदय की मटकिया।।सपने में नैन मिला, हँसत है सजनिया।छलकावत जाय रही, नेह की गगरिया।।गरज गरज बरस रही, श्यामली बदरिया।झनकारै हृदय-तार, कड़क के बिजुरिया।।ऐसे में कुहुक सुना, वैरन कोयलिया।विकल करे कबहु मिले, सजनी दुलहनिया।।तेरे बिन शुष्

14

भुजंगप्रयात छंद "नोट बन्दी"

14 मई 2021
0
1
0

भुजंगप्रयात छंदहुई नोट बन्दी ठगा सा जमाना।किसी को रुलाना किसी को हँसाना।।कहीं आँसुओं की झड़ी सी लगी है।कहीं पे खुशी की दिवाली जगी है।।इकट्ठा जिन्होंने किया वित्त काला।उन्हीं का पिटा आज देखो दिवाला।।बसी थी

15

भृंग छंद "विरह विकल कामिनी"

14 मई 2021
0
0
0

(भृंग छंद)सँभल सँभल चरण धरत, चलत जिमि मराल।बरनउँ किस विध मधुरिम, रसमय मृदु चाल।।दमकत तन-द्युति लख कर, थिर दृग रह जात।तड़क तड़ित सम चमकत, बिच मधु बरसात।।शशि-मुख छवि अति अनुपम, निरख बढ़त प्यास।रसिक हृदय मँह यह लख, जगत मिलन आस।।विरह विकल अति अब यह, कनक वरण नार।दिन निशि कटत न समत न, तरुण-वयस भार।।अँखियन थक

16

द्रुतविलम्बित छंद "गोपी विरह"

6 जुलाई 2021
0
0
0

द्रुतविलम्बित छंदमन बसी जब से छवि श्याम की।रह गई नहिँ मैं कछु काम की।लगत वेणु निरन्तर बाजती।श्रवण में धुन ये बस गाजती।।मदन मोहन मूरत साँवरी।लख हुई जिसको अति बाँवरी।हृदय व्याकुल हो कर रो रहा।विरह और न जावत ये सहा।।विकल हो तकती हर राह को।समझते नहिँ क्यों तुम चाह को।उड़ ग

17

मरहठा छंद "कृष्ण लीलामृत"

2 अगस्त 2021
0
0
0

मरहठा छंद "कृष्ण लीलामृत"धरती जब व्याकुल, हरि भी आकुल, हो कर लें अवतार।कर कृपा भक्त पर, दुख जग के हर, दूर करें भू भार।।द्वापर युग में जब, घोर असुर सब, देन लगे संताप।हरि भक्त सेवकी, मात देवकी, सुत बन प्रगटे आप।।यमुना जल तारन, कालिय कारन,

18

मकरन्द छंद "कन्हैया वंदना"

7 जुलाई 2022
0
0
0

किशन कन्हैया, ब्रज रखवैया,          भव-भय दुख हर, घट घट वासी। ब्रज वनचारी, गउ हितकारी,          अजर अमर अज, सत अविनासी।। अतिसय मैला, अघ जब फैला,           धरत कमलमुख, तब अवतारा। यदुकुल माँही, तव

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए