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'अपरिभाषित ज़िन्दगी'

30 अप्रैल 2019

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क्या कहूँ, कि ज़िन्दगी क्या होती है

कैसे यह कभी हँसती और कभी कैसे रो लेती है

हर पल बहती यह अनिल प्रवाह सी होती है

या कभी फूलों की गोद में लिपटी

खुशियों के महक का गुलदस्ता देती है

और कभी यह दुख के काँटो का संसार भी है

है बसन्त सा इसमें कोमल कलियों का खिलना

तो पतझड़ में टूटे शाख के पत्तों सा पतझार भी है

यह बदलती दुख-सुख में धूप-छाँव के जैसे

दिन में जलता सूरज, तो रात का शीतल चाँद भी है

क्या कहूँ, कि ज़िन्दगी क्या होती है

कभी हँसती है, तो कभी दुख में अश्रु बन रोती भी है

रुकती नहीं कभी स्थिर तालाब के नीर के जैसे

और नदिया के जल सी निरन्तर बहती धार भी है

नभ का असीमित विस्तार घना इसमें

तो भी घर के कोनों में सिमट के बैठी लाचार भी है

कभी गा रही पंछियों की रागिनी बनकर

और कभी सुने में बैठी कोई ध्यान मग्न साध्वी भी है

क्या कहूँ, कि ज़िन्दगी क्या होती है

कभी हँसती, तो कभी बहते अश्रुओं का उद्गार भी है

यह मधूर मिलन है प्रिय के संग साथ का

तो विरहा में जलती प्रेम आग का प्रहार भी है

कोयल का मधूर कूक है यह जीवन वन में

तो बदरा-बरखा में रोते हूए कलंगी का नाच भी है

यह गिरते-उठते नटखट बालक से

अनुभवी बूढ़ा और बुटापे का अन्तिम नाश भी है

हाँ, बंजर भूमि सी कमियाँ बहुत है इसमें

पर लहलहाती फसलों सी खुशियों की भरमार भी है

क्या कहूँ ,कि ज़िन्दगी क्या होती है

जितनी हँसती है, उतनी रोती बिलखती है

ज़िन्दगी की निरुत्तर कहानी हमेशा

अपरिभाषित थी, अपरिभाषित होती है ।

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