*मानव जीवन में इस संसार में उपस्थित समस्त पदार्थ किसी न किसी रूप में महत्वपूर्ण है परंतु यदि इनका सूक्ष्म आंकलन किया जाय तो सबसे महत्वपूर्ण हैं मनुष्य के संस्कार | इन्हीं संस्कारों को अपना करके मनुष्य पदार्थों से उचित अनुचित व्यवहार करने का ज्ञान प्राप्त करता है | हमारे देश भारत की संस्कृति संस्कार बहुत ही दिव्य रही है , बिना संस्कार के मनुष्य का जीवन पशु के समान व्यतीत हो जाता है | हमारे संस्कार इतने दिव्य रहे हैं कि यहां बचपन से ही बालकों को गुरुकुल के माध्यम से मानव जीवन को श्रेष्ठ बनाने की शिक्षा दी जाती रही है | जहां सर्वप्रथम इस समस्त सृष्टि की मूल नारी जाति का सम्मान करना सबसे पहले सिखाया गया है | हमारे शास्त्रों में "मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्" की शिक्षा दी गई है जिसका अर्थ है कि परनारी सदैव माता के समान होती है और पर धन मिट्टी के समान | इसी बात को सरल करते हुए बाबा जी अपने में लिखते हैं :- "जननी सम जानहिं परनारी ! धन पराव विष ते विष भारी !!" हमें आदिकाल से नारीजाति का सम्मान करना सिखाते हुए यह बताया गया है कि यदि उसकी आयु पुत्री के समान है तो उसको पुत्री मानो , अपने समकक्ष है तो उसको बहन मानो एवं अपने से वृद्ध होने पर उसे माता मानने की शिक्षा दी गई थी , इसके अतिरिक्त यह भी सिखाया गया था कि "यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता" अर्थात :- जहां नारियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते | इन्हीं मान्यताओं को मानकरके एवं इसका पालन करते हुए ही हमारे देश की संस्कृति समस्त विश्व में प्रसारित हुई और भारत विश्व गुरु कहलाया था | ऐसी मान्यता हमारे देश में थी तो उसका मूल कारण यही था कि मनुष्य को बचपन से ही संस्कारित किया जाता था | गुरुकुल प्रणाली में शिक्षा प्राप्त करके मनुष्य संस्कारित होकर के समाज में मानवोचित कृत्य करता था , परंतु धीरे-धीरे समय परिवर्तित हो गया और आज मनुष्य सारे संस्कार एवं सारी शिक्षा को भूल गया है यह स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है |*
*आज समाज में चारों ओर संस्कारों का पतन होता हुआ ही दिखाई पड़ रहा है | संस्कारों से विमुख होकर के मनुष्य ऐसे ऐसे कृत्य कर रहा है कि मानवता भी लज्जित होती जा रही है | आज "मातृवत् परदारेषु" की शिक्षा मनुष्य भूल चुका है | इसका मुख्य कारण है आज प्रदान की जाने वाली शिक्षा जिसमें सिर्फ अर्थोपार्जन का गुण सिखाया जाता है | आज की शिक्षा में संस्कार अंतर्ध्यान हो गए हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज समाज की स्थिति देखकर कह सकता हूं कि आज मनुष्य को किसी भी नारी में पुत्री , बहन व माता के दर्शन नहीं हो पा रहे हैं | वासना के वशीभूत होकरके समस्त नारी जाति को वासनात्मक दृष्टिकोण से ही देखा जा रहा है , चाहे वह चार साल की अबोध कन्या हो या अस्सी साल की वयोवृद्ध | आज कहीं ना कहीं उनके साथ व्यभिचार की घटनाएं सुनने को मिल जाती हैं | यदि आज ऐसा हो रहा है तो इसका मुख्य कारण यही है कि मनुष्य संस्कारों से विहीन हो चुका है | आज मनुष्य के द्वारा नारी जाति के साथ जो कृत्य किया जा रहा है वह कहीं से भी मनुष्य के संस्कारित होने का प्रमाण नहीं प्रस्तुत करता है | आज निशाचरत्व अपने चरम पर तो नहीं कहा जा सकता परंतु इसका प्रसार तेजी से हो अवश्य रहा है | यदि इन से छुटकारा पाना है तो अपने बच्चों को संस्कारित करना ही होगा जो आज की शिक्षा पद्धति के भरोसे नहीं हो सकता है | बच्चों को संस्कार परिवार से मिलते हैं प्रत्येक माता-पिता का कर्तव्य बनता है कि अपने बच्चों को संस्कारित करते हुए नारी जाति का सम्मान करने की शिक्षा दें अन्यथा आने वाला समय और भी वीभत्स हो जाएगा | आज जिस प्रकार पूरे देश में कहीं भी नारी जाति सुरक्षित नहीं है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य आज अपने संस्कारों की पूर्णाहुति कर चुका है | इसका कारण शिक्षा पद्धति तो है ही साथ ही उन संस्कार विहीन पुरुषों के माता-पिता भी कहे जा सकते हैं जिन्होंने अपनी संतान को किसी के सम्मान करने की शिक्षा नहीं दी है | आज आवश्यकता है एक जन जागृति की अन्यथा कल क्या होगा यह सोच कर ही हृदय कम्पित हो जाता है |*
*जिस समाज में संस्कार नहीं रहते हैं वह निशाचरों का समाज कहा जाता है | आज देवत्व रो रहा है और किसी भी उम्र की नारी कहीं भी सुरक्षित नहीं दिख रही है | यह मानव समाज के पतन का स्पष्ट संकेत है |*