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चचाजान

1 सितम्बर 2018

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बहुत दिनों से हजारों बातों को दबाएं बैठा हुआ हूं,ये जो क्या...डिजीटल चिट्ठी चली है न अपने तो समझ से ऊपर है। चचा जान अच्छा हुआ आज आप हो नही..,नही तो देश की वास्तविकता से जूझ रही धरती माँ को तड़पते ही देखते। इस न जाने डिजीटल दुनिया में क्या है कि लोग अपनी वास्तविकता ओर पहचान से शर्म खाते हैं। चचा जान वो समय ही बदल गया जहाँ देश के लिए कुर्बानियां दी जाती रही,आज वो चुप-चाप सन हो बोझिल नयन से कराह रही हैं। न जाने क्यों लोग उसे अपना कहने से कतराते है??,न जाने क्यों शर्म खाते हैं??चचा तुम होतो तो जरूर समझातो मगर अपने से तो ऊपर है। इसीलिए चचा आज तुमसे आपन बात कहें बदे एक चिट्ठी लिख देइस। लेकिन देखा जाए ते ऐह डिजीटल जाल में कागज़ की पतरी कोरी बा। चचा देश एक बार फिर बुरी आबोहवा में फंस गईल बा,जेहिं के देखा उहे लूटन-घसूटन में जुटल बा।अपनी पहचान के त माना दफ़न करे बदे हजारों तले गड्ढे खोद दिहन हो।जेहके जिम्मेदार भी हमय आप हैं। चचा आप अंग्रेजो के अत्याचार हमें बहुत सुनाया करते थे,मगर आज अंग्रेज तो नही अंग्रेजीपन हावी है। ये वही समय है जब स्कूल में हिंदी बोलने वाले बच्चें को कोड़ो के बजाय बेतों से धुना जाता हैं। उन्हें अच्छे विद्यालय में दाखिला नही दिया जाता वजह साफ.."हिंदी? ये वो चकाचौंध वाली दुनिया है जहाँ वास्तविकता में नही दिखावा में जिया जाता हैं,कब्र के समान लोग हिंदी दिवस पर खड़े हो श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। हिंदी के वजूद पर चंद पंक्ति,बहस,मुद्दे तो जरूर उठाते हैं मगर सिर्फ उन क़ैद ऊँची मीनारों के भीतर। बाहर आते ही अंग्रेजियाना शुरू हो जाता हैं,शायद इमेज जैसी बातें सामने मंडराने लगती हैं। सोचिए ज़रा आज हिंदी को लोगो ने कितना नीचा दिखाना शुरू कर दिया।हिंदी बोलना जैसे जुर्म के बराबर हो। हिंदी भाषी को न तो बेहतर विद्यालय में दाखिल किया जाता हैं,न ही अच्छी जगहों पर नौकरी में चयन.....काहे कि अंग्रेजीपन नाही हव न चचा। चचा आज चिट्ठिये में सब लिख देबे..,नाही त ई बात सुने वाला कोई न हव। चचा दूर वाली काकी रहिन न उनकी बहू भी तड़का अंग्रेजी बोलेला अब काकी करे का....दहेजें से लदीं हइन,बहू शॉर्ट्स पहिन रमेश भइया के नाच-नचावत हइन। का कहि गजबे होत बा...बस लगत हव की जिंदगी यही खत्म होइय जाए। नाही तो ई सब देखत देखत दम निकल जाईं। काहे कि न चचा आज के बख़्त में पइदा होल बच्चा के भी अम्मा या माई या माँ नही...मॉम बोले सिखाय जात हैं। जब बच्चा न बोले तो उके गूंगा साबित किया जात हैं।कइसन दुनिया होगइयल-बा। कलही क बात हव..कुंदन चाची चन्दनवा के खूब मरलीन हइन,ईएथ बदे कि हिंदी बोलये से ओकर अच्छे स्कूलवा में दाख़िल न हो पाई।चड्ढी उतार घाम में खड़ा कर देहनि..आख़िर का गलती रहें बस इहे न हिंदी बोलत-बा। अंग्रेजी आज सबके कौड़ा बरसावत बा। चचा नौकरी से ज्यादा बेरोजगारी ढेर बढ़त-बा। ये चिट्ठी भले ही सुरेश ने चचा से अपनी बात कहने के लिए जरूर लिखी हो क्योंकि उसे सुनने वाला आज कोई नही। ज़रा आप भी सोचिए लोग क्यों हिंदी बोलने से शर्म महसूस करते हैं?क्या आज हिंदी बोलना जुर्म- सा हो चुका है?क्या अपनी भाषा बोलने से अच्छी पढ़ाई लिखाई नही होतीं?क्या पहले और अब में कुछ बदला है,नही.....शायद नही अगर बदला तो हमारी मानसिकता ,सोच वो सोच कि अंग्रेजी बोलना यानि गर्व महसूस करना। मगर मुझे लगता है ऐसे लोगों को गर्व नही शर्म महसूस करना चाहिए क्योंकि हम अपनी भाषा को कुचल कर अंग्रेजीपन को तवज्जो दे रहें। वही विदेशों में लोग हिंदी को बढ़ावा दे रहे। उसके अस्तित्व व पहचान को बता ही नही बल्कि उकसा रहे कि आप हिंदी पढ़ना ही नही बोलना भी सीखे। कही ऐसा न हो जाए कि एक बार फिर इस आज़ाद दुनिया मे भारतवासी अंग्रेजीपन में क़ैद हो जाए,और इस चकाचौंध में अपनी वास्तविकता को चिराग लेकर ढूढंने लगें। हिन्दी हमारी मात्र भाषा ही नही हमारी पहचान है,वो पहचान जिस तरह एक पैदा हुए बच्चें की पहचान उसके माँ से कि जाती हैं।उसी तरह हर भारतीय की पहचान उसकी मातृ-भाषा से की जाती हैं। लेकिन हम आपने ही हिंदी को दफनाना शुरू कर दिया।कहीं ऐसा वक़्त न आ जाए कि जब पूरा भारत अंग्रेजीपन का शिकार हो घमण्ड में चूर हो रहा हो, तभी अंग्रेज हिंदी बोल इस सुनहरी चिड़िया को फुर्र कर दें। इसी वास्तविकता को देखते हुए मैंने अपने पिछले आलेख में भी चर्चा की थी ... "हिंदी है सबकी पर हिंदी का कौन?" जिस देश की मातृ-भाषा पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक हिंदी हो,आज उसी हिंदी के अस्त्तिव पे लाखों सवाल क्यों?क्या आज "हिंदी" को देश निकाला का प्रस्ताव मिल गया हैं?कहते है;अँग्रेज चले गये, अंग्रेज़ी छोड़ गये। शायद यह शब्द बेहद कमज़ोर नही वरन् हिंदी को कमज़ोरी की ओर धकेल रहे। आज हिंदी बोले जानें वाले लोग अपने को कमज़ोर समझने लगें। अपने पुरात्तव को चोट पहुँचा कर, दूसरी सभ्यता को अपने रहें। क्यों क्योंकि आज का युग मॉडर्न-वेस्टर्न,हाई-फाई का बोलबाला हैं? वक़्त बदला ,देश बदला, देश की जनता बदली ....शायद इस बदला बदली के खेल में हमारी भाषा भी बदल गयी।एक वक़्त था जब लोग गर्व से कहते थे,"हिंदी है हम,हिन्दोस्तां हमारा"। आज एक वक़्त यह है कि हिंदी बोलने वाला अपने को अकेला महसूस कर रहा।हिंदी को हम अपनी मातृ भाषा का दर्ज़ा नही बल्कि उसे सिर्फ़ सरनेम की तरह यूज कर रहें। दिन पर दिन हिंदी हम सबसे कही न कही दूर हो रही। हम अपने मातृ भाषा को खों रहें या यूँ कहे कि उसे दाँव पे लगा अंग्रेजी को बड़बोला बना रहे। सदी के इस पन्ने में यह दर्ज हो चूका है- "हिंदी है सबकी पर हिंदी का कौन?"हमे हिंदी बोलने में शर्म क्यों?क्या अंग्रेजी बोलने से हम अंग्रेज़ बन जायेंगे ? आज एक ऐसा समय है;न तो हम हिंदी के है न अंग्रेजी के बस विडम्बना में जी रहे। न तो ठीक तरीके से हिंदी ही आती है न अंग्रेजी। हिंदी दिवस तो हर साल आता हैं। उस दिवस को लोग मानते भी है,लेकिन सिर्फ एक त्यौहार की तरह।हिंदी दिवस पर लोग सोशल साइट के जरिये फेसबुक,ट्वीटर पर उसे याद कर लेते हैं। चंद लाइन लिख उसे नमन कर लेते है। इतिहास के पन्नो को पलट कर देखे तो लोग शायद भूल चुके है कि ब्रिटिश तानाशाही मैकाल ने अपनी कूटनीति के तहत भारत पर अंग्रेजी थोपी थी। हमारी मातृ भाषा पर प्रहार किया था। जिसका असर यह हुआ कि हमारी हिंदी को गुलामी का दर्ज़ा मिला जो आज तक बदस्तूर है। आज यह हालत आ गयी है कि न तो हमे हिंदी लिखने आती है न अंग्रेजी। कम्प्यूटर इस सदी का सबसे बड़ा हथकंडा है,जिसके जरिये ऐसे सॉफ्टवेयर है जिसमें अंग्रेजी में लिखो तो हिंदी रूप सामने आता है। वही अब तो इति सुविधा हो गयी है कि हम हिंदी में लिखते तो है मगर अंग्रेजी में टाइप करके जिसे फ़ोनेटिक भाषा का नाम दे दिया गया है।विभिन्न भाषाओं में तीसरा स्थान प्राप्त करने वाली भाषा हिंदी आज अहिंदी में परवर्तित हो चुकी है। जहाँ एक तरफ हिंदी को आगे बढ़ाया जाता है वही दूसरी तरफ कक्षा में पढ़ने वाला छात्र जब अपने शिक्षक से कक्षा में प्रवेश की अनुमति चाहता है तो कहता है"मै आई कमिंग सर्/मैम"। आज जो लोग हिंदी दिवस पर तमाम लेख प्रस्तुत करते है,हर वर्ष उसके विकास की बात करते है मैं उनसे इस चिट्ठी के माध्यम ये पूछना चाहती हूँ क्या हम आपको हिंदी आती हैं??शायद जवाब हां होते हुए भी न ही होगा,क्योंकि हिंदी अंग्रेजी से भी कठिन है। आज हर माँ-बाप अंग्रेजी स्कूल में बच्चो को उच्चशिक्षा दिलाने की चाह रखते है,यदि बच्चा अंग्रेजी बोले तो गर्व, हिंदी बोले तो शर्म महसूस करते है आखिर क्यों???क्या आपको पता है आज बेरोजगारी जैसे शब्द हम पर क्यों कहर ढहा रहे क्योंकि जिन्हें हिंदी आती है उनके लिए आज नौकरी में कोई स्थान नही। जिन्हें अंग्रेजी आती है वो बेरोजगार जैसे शब्दों से अछूत है। हिंदी हमारी मातृ भाषा ज़रूर है,हम इसका प्रयोग भी करते है बेहतर जिंदगी के लिए,न कि कैरियर के लिए।बेहद दुखद बात तो यह है कि जहाँ आज हम सदी में एक नया परचम लहलहा रहे,वही अपनी मातृ भाषा हिंदी को मजबूरी का नाम दे दिए। - आकाँक्षा श्रीवास्तव

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