2013 savita doosara bhag
होली के रंग जीवन के संग। सर में पड़ा सूखा
रंग, नहाते वक्त ही बताता है कि मै कितना चटकीला हूँ। पानी की धार के साथ शरीर
के हर अंग मे अपनी दस्तक की खबर के तार को बिछाता। उस समय यह अनुमान लगाना मुश्किल
हो जाता है कि यह किसका रंग हैं? फाल्गुन का महिना आधा हो
चला था। चटकीले रंग फीके हो चले थे। जिस जगह होलिका दहन हुआ था, दहन के बाद की राख धीरे-धीरे उन खेतो की तरफ उड़ने लगी थी जिधर गेहूँ के
लह-लहाते खेत अपनी अध-पकी बालियों से ताना कसी कर रहे थे।
जीवन की रुप-रेखा मौसम के इशारो में बदल
जाती हैं। देवा को भी बदलने में टाइम न लगा इस बार चैत काटने में देवा की कोई
दिलचस्पी नही थी। तीन बच्चों का बाप जिसमे पहली बड़ी बेटी हो। उसका एक सेंटीमीटर बढ़ना
बाप की एक साल की फिक्र को बढ़ा देती हैं। यह कहावतों में ही कहीं सास लेती हैं।
अभी तो वो बहुत छोटी थी। बस समझ थी तो अपने घर के बाहर बनी गलियों से, अपने
हमजोली के दोस्तो के साथ घर से बाहर निकल
कर कपड़े की बनी गुड़ियों से खेलती।
नीम के पेड़ से सविता का रिस्ता टूटा नही
था। नीम के पेड़ ने अपनी सारी पुरानी पकी पत्तियों को गिरा कर नई कोपलों के एहसास
को जीने में, दिन ब दिन काली घनी होती जा रही थी। सविता ने आज बाहर पड़ी
सूखी अध पीली पत्तियों को झाड़ू से बहार, बास की टोकरी में भर
कर सामने बने तालाब के गड्डे में पलट दिया। पानी के सम्पर्क मे आते ही सड़कर मिट्टी
या खाद बन जाएगी। इस परिवर्तन से सविता का कोई लेना देना न था।
देवा के पिता जी अपने कमण्डल में, सामने
लगे नल से पानी को लिया, गाने की धुन में नहर की तरफ चल
दिया। जो ऊसरी जमीन मे दिखती रेहू को अपने नंगे कदमो से कुचलते हुए दूसरे गाँव की
तरफ बढ़ते जा रहे थे। देवा के दो साथी कंजू व बबलू तीनों अचानक से तैयार हो गए
दिल्ली जाने के लिए । सविता के लिए अचानक, उन तीनों का
प्रीप्लान था। पिता जी जैसे निकले वैसे हम भी निकले।
गाँव से 25 किलोमीटर की दूरी में बना
कानपुर का घंटाघर रेलवे स्टेशन। यह कोई छोटा मोटा स्टेशन नही हर आधे घंटे में
दिल्ली के लिए ट्रेन। यह सफर देवा व उसके साथियों के लिए नया नही ये सब शादी से
पहले कई बार घर वालों की चोरी से दिल्ली भाग कर आए थे। इस वजह से परिवार व घर के
महोल में कोई परिवर्तन नही था। सबकुछ अपनी रिदम में था। फर्क था तो सविता में जो
पहली बार अपने पति से जुदा हो रही थी।
सविता ने भी मना नही किया। वह देवा की
उदासी को अच्छी तरह से जान गई थी। तीनों
ने खाना खाया। अपने पुराने कपड़ों के साथ घर के सामने से जाती सड़क में पैदल ही चल
पड़े इस सड़क में उनको तीन किलोमीटर तक पैदल ही चलना था। अगर आड़ा तिरछा खेत की मेड
में चलो तो दो किलोमीटर ही रह जाता हमीरपुर रोड, कानपुर जाने के लिए टैंपो
व ट्रक खूब मिलते बसे तो गिनी चुनी मिलती। शिटी बसे तो दिन में दो चार चक्कर मार
कर महानगर की गलियों मे खो जाती। गणेश टैंपो तो पल-पल भर में दौड़ते दिखाई देते हैं।
नहर पार करके बिधनू रमाईपुर होते हुए बारा देवी में उतार देती। उनको स्टेशन से
क्या लेना देना।जिसको लेना देना होता वो सवारीयों को लेती और दूर गामी आने जाने वाली ट्रेनों के शोर में छोड़
आती यह उनका अपना रोज का काम था।
गाँव में इंट्री लेते ही, एक
बड़ी पुलिया, जिससे गाँव के घर दिखाई देते। एक छोटी पुलिया
जिसको पार करते ही किसी न किसी चेहरे से मुलाक़ात होती। तालाब के हरे साफ पानी में
पनडुब्बी अपनी गर्दन को पानी के अंदर डुबो, कमर को ऊपर करके, पंख में आए पानी को अपने आस-पास छिटक देती। सब्जी वाले खेतो की खुशबू
अपनी तरफ बुलाती। एक बड़ा सा जामुन का पेड़ जिसके नीचे फल वाली बहार में मालिक का एक छोटा सा खटोला।
बाकी के मौसम में पेड़ की छाया में गाँव की ही गाय, भैस, बकरियों का झुंड दिखता।
शाम के वक्त खेत में पानी देने वाले
टीयूबवेल से निकलता सफ़ेद ठंडा पानी नालियों में धार के साथ बहता हुआ। खेत में उगे
पौधो की जड़ो में खो जाता। नग्न शारीर के साथ गोरे, सावले लड़को का उछलता
कूदता बचपन दिखता। उनके उछलने कूदने से बरहा का पानी फूट कर दूसरे खेत मे जाने
लगता किसान चिल्लाता हुआ उनकी तरफ आता, उसको आता देख सारे
नंगे ही अपने कपड़े उठा कर घरो की तरफ भाग जाते।
सविता अभी सरकारी नल से पानी भर रही
थी।भीतर गाँव की बहुए अपने सर गोबर से भरे पलरे को रख कर ऊसर वाले जमीन की तरफ
जाती हुई दिखती। सर में पर्दा जरूर होता। गाँव ज्यादा बड़ा नही उन घरो के आस-पास
लगे खेत जिनमे उगती हरी सब्जी। खीरे की खेती के साथ तरबूज की खेती का नजारा कुछ और
ही होता। एक वाक्या याद है। मामा का लड़का खेत की बारी में जाता और उस खीरे को तोड़
कर लाता जो अँगुली से भी कम मोटा होता। उसकी मिठास और खाने के एहसास को बया नही कर
सकता।
एक झोली दूर से आती हुई दिखाई दी जो सविता
के ससुर की थी। ससुर की झोली को देख कर एक वक्त के लिए सविता झल्ला जाती यह सोच कर
की पता नही क्या बुड्डा उठा लाया हो? आज झोली मे किसी के घर का आनज नही था। खीरा, तरबूज, बैगन, बेल, इसके अलावा उनकी गंदी कमीज, सरकारी नल में अपने फटी
एडीयो के साथ पैरो को धो रहे थे। सविता झोली को खाली कर चुकी थी। आज लगता हैं इनका
दिमाग सही हैं। नही तो पता नही क्या-क्या उठा लाते हैं? दिया
की रोशनी नीम के पेड़ पर पड़ रही थी। मिट्टी की रसोई से उठती दाल चावल की महक पेड़ की
टहनियो से बाते कर रही थी। सविता के चेहरे में पसीने की एक-एक बूँद झलक रही
थी।गोदी वाला लड़का सो चुका था।बाकी के दोनों ओंघने की स्थिति में थे।
आगन में गाने की धुन जैसे कोई भीख मांगने
वाला दरवाजे पर दस्तक दे दिया हो। यह भिखारी की आवाज नही यह सविता के ससुर की आवाज
थी। खाने की थाली परोस कर खीरे के साथ आँगन में थाली रख दिया। थाली के समीप अपने
कमण्डल को रख कर जैसे ही खाने के लिए बैठे। एक सवाल पूछा देवा कहा गया हैं? बाहर
सुनने को कुछ- कुछ मिल रहा हैं। सविता ने वही से आवाज दिया जो सुना है वही सच हैं।
दूसरे जवाब की जरूरत नही थी। न कोई सवाल था।
सुबह के वक्त दूध वाला पीपा खटका। भैस की
जंजीर खनकी। घर के मालिक सोए रहते। दूधियाँ अपने साथ एक बाल्टी रखते भैस के पास
जाते। दून्हा शुरू कर देते जागे तो ठीक, नही तो दूध को पीपो मे पलट लेते नाप कर चले
जाते। सविता दूधिये के आने के टाईम को अच्छी तरह से जानती थी। देवा के जाने के बाद
हर काम को अपना समझती। समय से हर काम निभाती उसको देख कर लगता की उसके ननिहाल वाले
काम वापस से उसकी जिन्दगी का हिस्सा बनने लगे। खेतो से चारा लाना, उनको नहलाना दोपहर होते-होते भैस का खूटा बदल जाता।
काफी दिनो के बाद अपने ससुर को पापा कहा
था। भैस जो खूटा लेकर चल पड़ी थी। बगल वाले खेत का नुसकान करने। आज उन्होने बहुत
जल्द सविता की आवाज को सुन लिया था। वो उधर की तरफ दौड़े जिधर भैस जा रही थी। उसको
पकड़ कर बिलायती बबूर के पेड़ से बांध दिया दो चार भैस को गाली देकर।
कई महीने गुजर गए इस तरह की जिंदगी को
उधेड़ते-उधेड़ते बिना किसी बुनाई के। दरवाजे की तरफ पोस्टमैन को आता देख सविता ने
सोचा की मानी आर्डर आई हैं।ख्याल झूठा निकाला वो तो सिर्फ एक कागज का लिफाफा पकड़ा
दिया। जिसमे प्यार के चार शब्द छपे थे। पापा का ख्याल रखना। बच्चो को सही से रखना
हो सका तो दिवाली मे घर आऊँगा अपना ध्यान रखना बाकी तुम खुद समझदार हो और क्या
लिखू?
सविता ने पूरी चिट्ठी को बाँच लिया और
नखराले अंदाज मे टूटी चार पाई की तरफ फेक दिया यह कहते हुए। किस तरह से घर चला रही
हूँ? बच्ची के शरीर मे दाने दाने से फूट आए थे। नीम के पानी से नहलाती। नीम की
मोटी पेड़ी से छाल निकाल कर शरीर मे लेप लगाती दवा के लिए पास मे फूटी कौड़ी भी न
थी। सविता अपने ससुर का ख्याल चिट्ठी पढ़ने के पहले से ही रखती थी। वो पागल जैसी
हरकत तो करते लेकिन अपनी बहूँ के साथ अपने पोती पोते का पेट भी पालते। आनाज लाने
वाले झोली मे छेद के छेद दिखने लगे थे। कमीज की सारी बटने निकल चुकी थी। सफ़ेद दाड़ी
के दो चार बाल सुनहले हो चले थे।
लंबा तगड़ा शरीर दिन ब दिन कमजोर होता चला
जा रहा था। बुखार से सारा बदन तप रहा था। जंगल की तरफ निकल पड़े नहर से आई हुई
पक्की नाली जिसमे महीने में दो हफ्ते पानी आना ही आना था नाली भरी बह रही थी। आम
का पेड़ जिसकी डाली मिट्टी की मेड़ को चूम रही थी। रेहू धूल भरी हवाओं के साथ मिल कर
एक चक्रवात की तरह आम के पेड़ के बराबर उठ रही थी। एक सावली से अम्मा उस पक्की नाली
की बाट पर बैठ कर रेहू से सने कपड़ों को साफ कर रही थी। गाँव के धोबी बकरी की लेडी
व रेहू मे कपड़ों को हौदी में रात भर के लिए फूला कर छोड़ देते। सुबह या दोपहर के
वक्त उस पक्की नाली मे बहते हुए पानी से दरी चद्दर को फलकारती। फलकारने के बाद वही
हरी घास पर सूखने के लिए पसार देती।
एक सूखा बबूल का पेड़ जिसकी डाल पर गाय, भैस, बकरी चराने वाले बैठ कर मजा लेते। कंजे के पेड़ से पत्तियाँ टूट चुकी थी।
हरी छोटी गोल पत्तीयां उनकी मुट्ठी मे थी। पत्तियों को बहते पाने से धूला। नमी दार
पत्तियों को घर लाकर सविता को देते हुए कहा, बहू इनको
सिलबट्टे पर पीस लो, इसका अर्ख निकाल कर एक चम्मच चीनी
मिलाकर ले आओं। सविता के लिए एक नया अनुभव था। उसको काफी देर तक उसको रगड़ती रही जब
वह बिलकुल हरी धनियाँ की तरह चटनी हो गया
तो उसको साफ सूती के कपड़े से छान कर ग्लास मे चीनी के साथ मिलकर छपरे की नीचे पकड़ा
दिया।
उस दवा को तो इस कदर पी गए जैसे नीबू का
सरबत पिया हो। सविता की नजर उन पर ही थी। तप्ती दोपहरी से पसीना-पसीना ही फूट रहा
था। पुरानी दरी को जमीन में बिछा कर नीम के पेड़ के नीचे लेट गए। उनकी बड़ी पोती
उनके पास ही एक कटोरी के साथ दूध रोटी खा रही थी।पोती के बाबा उससे बे खबर थे।
मुहल्ले के और भी लोग पेड़ की छाया का मजा ले रहे थे।
नीम के पेड़ में निमौरी आने लगी थी। सफ़ेद
फूल गायब हो रहे थे। बारिस का महिना गुजरने वाला था। गाँव के पेड़ो मे सावन के झूले
पड़ गए थे। कजरी बो दी गई थी। राखी का त्यौहार झूलो के साथ ही दस्तक दे दिया था।
देवा भी आ गया बिन बताए, उसको देख सविता के चेहरे में जितनी मुस्कान
उससे ज्यादा कही माथे की सीलवटे यह बया कर रही थी दिवाली में आने वाले इस मौसम में
कैसे? कई सवाल ज़हन मे बिजली की तरह चौंध गई ।
सुबह के सात बज रहे थे। देवा के चाचा लोग नल
पर नहा रहे थे। उसने सबके चरणों को स्पर्श किया हल्की सी मुलाक़ात में सबकुछ उन्हे
बता दिया। ये सब उस सामय हुआ जिस वक्त वो सरकारी नल में नहाने के लिए आए थे। उनमे
से उनके मँझले चाचा जिनका कद नाटा चेहरे पर गड्डे नुमा दाग थे।वो दाग किसी बीमारी
की वजह से हुए थे । वो हमेशा किसी गाने की लय में रहते। उनकी एक आदत थी अपने से
बड़ो को बड़ी तहजीब से साहेब बंदगी करते या, राम-राम चाचा, या फिर
कहते दादा चरण छुवन यह कह कर अपने धुन मे फिर खो जाते।
देवा एक डाकियाँ की तरह आया और अगले दिन
ही मनीआर्डर दे कर दिल्ली चला गया। किसी ने देखा किसी ने नही देखा। सविता अब पहले से
ज्यादा खुश दिख रही थी। एक दिन दोपहर के समय अपने ससुर से कह रही थी। पापा वो कह
रहे थे। दो तीन महीने बाद सब को दिल्ली ले चलेंगे, आप भी चलना। यह बात उनको
जमी नही, उन्होने कहा कि मै तो कहीं जाऊंगा नहीं । मेरा जीवन
मरण यही हैं। न बड़े वाले के साथ गया। न ही तुम्हारे साथ। सविता का चुप रहना उसका
बड़प्पन था।
कुछ महीने बाद ही भैस ने दूध देना कम कर
दिया था। दो तीन माह की गाभीन थी। सविता अब उसको भी नही रखना चाहती थी सो दूधहा से
कहकर भैस को बेच दिया। जो कुछ पैसा मिला उसको संभाल कर रख लिया। जब देवा आया तो सारा पैसा लेकर भैस का
लोन अदा कर दिया। वो भी तो कर्जे से ही आई थी।कर्जा तो भरना ही था वरना ब्याज़ बढ़ता
रहता कौन भरता? सविता के ससुर कई दिनों से गैब सा हो गे थे। घर आना छोड़ दिया
था।
शाम ढलने वाली थी। नीम के पेड़ के नीचे एक
साईकिल आ कर रुकी जो देवा के बड़े भाई जयनारायन की थी, उनकी
ही कैरियर में उनके पिता जी बैठ कर आए थे। इस वक्त बाप के साथ दोनों बेटो का रहना
लाज़मी था। रात उनके सलाह करते हुए गुजरी बड़े भाई ने कहा कि हम पिता जी को साथ में
रख लेते हैं तू मुझसे छोटा हैं। कभी अगर किसी चीज की जरूरत हो एक बार याद कर लेना
पूरा साथ दूँगा। देवा ने हामी भरते हुए कहा ठीक हैं भाई इनका ख्याल रखना। मैंने
वहा पर सारी ब्यवस्था कर के ही लेने आया हूँ। जैसे यहाँ कमाना खाना, वैसे वहाँ भी।
अब तक दूसरे साल का मार्च वाला महीना आ
चुका था। सविता इस बार पिछले अनुभव को भूला कर भारत की राजधानी दिल्ली में एक नई
जिंदगी को समझने के निकल पड़ी अपनी एक छोटी सी गिरस्ती के साथ। उनके सफर को साथी
कैसे जान पाते? काफी सालो का फासला बन गया था सविता और भानू का।बस इतना
रिस्तेदारों से पता चला था कि वह अपने छोटे से परिवार के साथ दिल्ली के संगम विहार
में किराए पर रहती हैं। अब देवा का साथी कंजू अपने गाँव वापस हो चुका था। यह कहकर
कि दिल्ली अब कभी वापस नही आना हैं।
सविता ने अपने पति का साथ पाकर हमेशा खुश
रहने लगी। बच्चों का दाखिला संगम विहार के एक प्राइवेट स्कूल मे दिला दिया। देवा
का काम थोड़ा ताकत वाला था। गैस इजेन्सी से सिलेंडरों को साईकिल मे रख कर पते-पते
पर पाहुचाने का काम था। उसके जैसा काम देवा के सभी साथी करते। धीरे-धीरे करके सारे
दोस्त वापस गाँव की तरफ चले गए। सविता की बड़ी बहन भी उनके पास कमरा लेकर किराए में
रहती। उनके भी पति उसी काम को करते थे। धीरे धीरे दोनों लोगो ने अपने रहने के लिए
जमीन का जुगाड़ किया। किस्त में जमीन को लेकर एक छोटे से सपने को बड़ा आकार दिया जो
उनको कामाने के लिए और उत्साहित किया। बड़ी बहन के पति ने अपने आप को किस्त से मुफ़त
करा लिया लेकिन दिन ब दिन किस्तों में उलझता चला गया। सारा परिवार उससे इतना दूर
था की चाह कर भी उन लोगो से नही मिल पता बड़े भाई का साथ न होना पिता का गुजर जाना
देवा की जिंदगी को और ही जटिल बना दिया था।
सविता का साथ पाकर वह उन सब बातो को
दरकिनार करते हुए। अनमने ढंग से जीवन को एक लकीर की तरफ खिचे जा रहा था। काफी सालो
बाद देवा की मुलाक़ात भानू से देवा के घर में हुई थी।भानू को देखकर देवा को लगा था की मेरे परिवार का एक
लड़का तो दिल्ली आया। परिवार के परिभाषा को लेकर देवा व भानू ने मिलकर ढेर सारी
बाते किया। देवा ने भानू से कहा कि तुम चाचा के लड़के हो तुम्हें मै अपने दिल की
बात बताता हूँ। जबसे दादा के प्राड-पखेरू उड़े हैं उसी दिन से हमने अपने आपको
बिलकुल अकेला और तन्हा मान लिया। लेकिन जब अपने इन बच्चों को देखता हूँ। तो लगता
हैं कि अभी मेरे पास सारा जहा हैं इनको मैं बहुत अच्छा पढ़ाना चाहता हूँ।
कुछ महीने पहले ही एक जमीन लिया हैं। सोच
रहा हूँ कि बनवा कर उसी में रहने लगे तो कम से कम अपना घर होगा किराए का पैसा
बचेगा उसी पैसे से बच्चों को अच्छा खिला सकूँगा इनका पालन पोषण सही से कर पाऊँगा।
सविता चार पाई के बगल में बैठ मसाले को तेल में भूँज रही थी बीच-बीच में चमची को
रोक कर कहती कि भानू तूने तो हमे बचपन से देखा हैं साथ में इनको भी देखा हैं मै
इनसे यही कहती हूँ कि पीछे का सब भूल जाओ अब इन बच्चों के भविष्य को बना देते हैं
अपनी तो फिर देखी जाएगी।
देवा सविता की बातो को गौर से सुनता और
आगे वाली बात को कहता ये सारी बाते बच्चे भी सुन रहे थे। बेटी ने कहा कि भानू चाचा
आते हैं हम पापा को इतना बात करते हुए देखते हैं। और गाँव की भाषा सुनने को मिलती
हैं। बिलकुल गाँव की तरह बोलते हैं। सविता ने कहा कि कोई अपने गाँव की भाषा को
थोड़ा छोड़ देते हैं। सब्जी बन चुकी थी चावल उबाल पर था। आटा भी गुदने वाला था। बेटी
ने फिर एक सवाल खड़ा कर दिया कि मम्मी ये तो हमारे मौसा भी लगते हैं तुम्हारे बड़े
वाले मामा की बेटी ब्याही हैं। लेकिन ये तो अपने परिवार वाला ही रिस्ता चलाते हैं।
चाचा ही बोलना, चावल पक गए। तवा चूल्हे मे चढ़ गया। पकी रोटी बास की बनी टोकरी में आने लगी।
बच्चे खाने की थाली लेकर कहने लगे चाचा आप
भी खाओं, देवा ने कहा आप लोग खाओं हम चाचा आराम से खाएँगे। अब रात काफी होने वाली
हैं। सो जाओ देवा ने अपने को फ्रेश किया भानू भी फ्रेश हुआ। खाने की थाली चारपाई
में ही आ गई, कई सालो बाद सविता के साथ खाने का मौका मिला
था। इस वक्त वो रोटी याद आई जिसको सविता ने नमक तेल में लगा कर दिया था। भानू ने
निह संकोच यह बात कह दिया। देवा भाई ने कहा पुरानी बातो को छोड़ो अब तो भाभी के हाथ
का खा लो हम सब को एक दूसरे के मरने जीने मे साथ निभाना है।
सविता अभी फ्रिज की तरफ पानी लेने के लिए
बढ़ी थी। एक मूली को भी साथ ले आई। चिकन बहुत अच्छा बना था। तीनों बच्चे मुह से
मिर्ची लगने वाली अदा के साथ सु-सु............. की आवाज लगाते हुए अंदर पड़े बेड
में गिर गए। खाते वक्त भी ना जाने कहा- कहा की बाते करते-करते पतीला खाली हो चला
खाने से तो पेट भर गया लेकिन बातो से पेट भूखा था। बातों-बातों में ही कब नीद की
आगोस में चले गए।
करवटों की वजह से सारा बिस्तर सिमट-सिमट
कर चारपाई से नीचे की तरफ खिसक चला था। ऐसे लग रहा था भानू को की वह रात में सोते
वक्त भी बाते करता रहा हो। देवा का परिवार कमरे में ही सो रहा था उनको देख कर लग
रहा था की वह अब बिलकुल शहर वाले बन गए हैं। जबकि सविता गाँव मे दूदहा के पीपो की
खनक के साथ सुबह चार बजे ही जग जाया करती थी। अभी वह बिलकुल गहरी नीद में करवट लिए
तकिये के साए में सो रही थी। बच्चे तो इस कदर लेटे थे समझो रात में कब्ब्ड्डी खेल
कर आए हो, भानू भी सोने के बहाने में था। लेकिन इस वक्त नीद कहाँ?
गली से टहलने वालों का हुजूम सैनी फार्म
की तरफ बढ़ता जा रहा था। उस ढलान की तरफ जिधर के बारे में भानू को कुछ भी पता नही
था। वह भी उसी हुजूम के साथ शामिल हो गया कुछ कदम बढ्ने के बाद पाया की वह घर
बस्ती के किनारे वाला हिस्सा था। जहाँ से रात के वक्त गुजरना काफी डरावना था लेकिन
हुजूम के साथ किस बात का डर। अब था तो अपरचित ही अगर कोई पूछ लेता की तुम कौन हो? बस एक
बात ही दिमाग में थी। गैस बटने वाले को कौन नही जनता हैं। पूछगें तो देवनरायन का
नाम बता दूँगा। बस एक ही सवाल कोस रहा था कि अगर यह नाम बताया उन्हे ना पता हुआ
तब। कहदूंगा की देवा के घर आया हूँ।
शहर में नाम पूछे वो भी कभी किसी अजनबी से
यह तो हो ही नही सकता अरे हमारा ही नाम पूछ ले तो वही बड़ी बात हैं। कुछ ऐसा ही हुआ
किसी ने कुछ भी नही पूछा पीछे जरूर मूड कर देखते कि कौन हैं? भानू
ने भी वैसा ही रोल अदा किया जैसे रोज उसी हुजूम में आता हो। 200 मीटर की दूरी तय
करने के बाद वापस हो लिया बस यह अंदाजा लगा लिया कभी दोबरा से सविता के पास आऊंगा
तो घर भूल गया तो इस किनारे बसे जंगल से नही भूलूंगा। वापस आकर देखा की सविता शाम
के झूठे बर्तन दरवाजे के सामने ही धूल रही थी। झूठे हाथो को रोक कर आश्चर्य से
पूछा तू कहा चला गया था। नही अरे मै तो
सोच में पड़ गई कि लगता हैं। तू वापस चला गया भानू ने हसते हुए बोला कि यह देख रहा
था कि कभी अकेले आया तो भूलूँगा नही आस-पास की पहचान लेने गया था। अच्छा चाय पी कर
ही जाना। तेरे सोचने का तरीका पूरे परिवार में अलग हैं। एसी बात करता है कि सामने
वाला कुछ पूछेगा ही नही। नही सविता ऐसी बात नही अपने लिए समझ बना लेता हूँ।
सविता के नजदीक काफी दिनो बाद बैठा था।
उसने अपने ननिहाल के लोगो के बारे में पूछा सारी सहेलियों के नाम ले लिया कि वो
कैसी हैं? जिसका पता था उसको बता दिया जिसका नही उसको एक सवाल की तरह ही
छोड़ दिया। राधा, पैसुन्नी कहा हैं? अपने
मम्मी पापा के साथ बाँदा पुलिस लाईन में रहती हैं। वो तो ऐसे लगती कि जवान ही नही
होंगी वैसे ही हड्डी की तरह हैं। हसते हुए कहने लगी सही हैं वो कभी मोटी नही
होंगी।
चाय वाला कप काफी गरम था। चाय के साथ अंडे का आमलेट सफ़ेद
ब्रेड में लिपटा हुआ था। खाते समय देवा भी उठ गए। जा रहे हो क्या भानू? नही
बस जाने की सोच रहा था कि आप जग जाए तब हम जाए। कालेज जाने की जल्दी थी उस वक्त
देवली तक पैदर आना पड़ता था। तब कही 423 नम्बर की बस मोरी गेट के लिए मिलती थी।
प्राइवेट बस कहते थे। इस बस के अलावा मुद्रिका बस को जनता था जो रिंग रोड का चक्कर
लगाती रहती थी जिसमे लिखा रहता था काले खाँ, मेडिकल, बस अड्डा, सफदरजंग, रजौरी
गार्डेन, वजीरपुर, राजघाट इत्यादि।
इतना कहकर भानू ने अपना स्कूली बैग लिया।
फिर मिलने का वादा किया देवा अपनी औंघाई आंखो से बिदा किया। यह कहते हुए की कभी भी
रात बिरत निःसंकोच आना यह आपका घर हैं। कोई बटवारा तो हैं नही। मेरा बुआ जी को
नमस्ते कहना देवा भईया ने बुलाया हैं। हा में गर्दन हिलाता हुआ निकला अन-जाने सफर
में। सविता अपने दरवाजे से हाथ हिलाती रही फिर से आने का। भानू अनुमान लगता हुआ
रास्ते को याद करता हुआ देवली के बस स्टैंड पर आ गया। उस वक्त दस रुपए का टिकट
लगता था प्रगति मैदान का।
भैरो मन्दिर के सामने उन भिखारियों का
जमावड़ा जो शराब को पीने के लिए पलास्टिक की बोतल का नीचे वाला हिस्सा लेकर उस
पंक्ति मे शामिल थे जिसमे कोई भी दानी अन्न का दान न देकर शराब का दान कर रहे थे।
भिखारी बहुत ही मस्ती में उस शराब को गट-गट कर पी जाते। पुराने किला की दीवार
जिसको देखकर लगता मानो सदियों पुराना हो। पुरानी सी दीवार के पास एक गाय जिसके आचर
से पीने का पानी निकल रहा था। जिस मुसाफिर को प्यास लगती वही गाय के आचर मे हाथ
लगाता, अपनी प्यास बुझाता।
अगर कोई शहर मे नया आया तो समझो उसे सबकुछ
नया सा लगता। यहाँ तक की पार्क की घास भी खेत से अलग ही लगती हैं। बाकी तो न जाने क्या
लगती हैं? सवालो के समुंदर मे गोते लगाता रहता हैं। भानू को दिल्ली की
हर चीज उसे अजीब लगती पहनावे को देखता। सब कुछ नया, एक बस्ती
जिसको देख कर भानू ने अपने पापा से कहा पापा इस बस्ती मे लोग कैसे रहते है? पापा बस एक बात कह कर चुप हो गए।
कि इसमे बाहर से आए हुए लोग ज्यादा रहते हैं, जो लोग शहर के
इलाको मे मजदूरी का काम करते हैं वही रहते हैं।
रिंग रोड से जाती मुद्रिका बस उसके मन को
मोहने लगी। पापा ने कहा कि बहुत सारे लोग 10 का टिकट लेकर जिस जगह से चढ़ते हैं वही
फिर से ऊतर जाते हैं। यह बसे गोल-गोल धूमती हैं।भानू ने कई जगाहों को घूमा जिसको
उसके पापा ने घूमाया था। कुछ दिनो बाद वापस हो गया अपने शहर को जो इस शहर से 519
किलोमीटर की दूरी पर था। इधर सपना से मिले हुए करीब छह महीने ही गुजरे थे की एक
सुबह करीब आठ बजे कमरे मे रखा फोन एक दम से चिल्ला पड़ा।
भानू दरवाजे के पास बैठा यही सोच रहा था
कि जिसको दूबरा से जरूरत होगा फिर करेंगे साले परेशान करते हैं मुफ्त मे। फोन की
घंटी रुकने का नाम ही नही ले रही थी। अंत मे उसने झक मार कर फोन को कान से लगाया
था कि वह बिना कुछ बोले ही बस सुनता ही जा रहा था। फोन कट गया भानू का चेहरा पसीने
से पूरा का पूरा भींग चुका था। कदम जीने
से उतरते हुए सविता के मामा के घर की तरफ कदम बढ़ चले। यह बताने के लिए सविता का
फोन आया हैं। उसके घर मे कुछ हो गया हैं। उसके पाहुचने से पहले उन्हे भी पता चल
चुका था कि देवा ने फासी लगा लिया हैं।
यह फोन झूठ सा लग रहा था भानू अभी तो
पिछले महीने ही मिलकर आया था। वह बहुत समझ दारी वाली बात कर रहा था। अचानक ए कैसी
नादानी कर बैठा? सबकी तैयारी को देखकर लग रहा था 50% हो सकता हैं किसी को किसी
से कोई शिकायत नही थी। इन लोगो के निकलने से पहले देवा का बड़ा भाई कानपुर से साथ
ही गाँव के दादा-पीती के भाई चल दिए। भानू भी अपने पापा के साथ चल दिया। सविता के
आसियाने की तरफ। कोई कही से आया। कोई कही से, सुबह का सूरज
अपनी रोजाना वाले अंदाज मे सर चढ़ कर बोल रहा था। सारे मोहल्ले मे सुनापन का महोल
था। गली के एक घर से सिसकने की आवाज़े आ रही थी सारी मोहल्ले की औरते सविता को घेर
रखा था। जैसे ही कोई उसके जान पहचान का आता वो सिसकियाँ करुणा मई आवाज में बदल
जाती। सभी उसको सीने से लगा कर उसको उसी हालात में छोड़ देते।
सभी सच का पता लगाने की कोशिश करते की
आखिरबात क्या हो गई? देवा का बड़ा भाई कई लोगो से मिला सभी ने एक आई ही बात कही कि
जब से नया वाला घर लिया था उसी दिन से उसकी मति मर सी गई थी। जब हम लोगो से मिलता
एक ही बात करता कि भाई यार पैसा कैसे अदा होगा? हम सब उसे
यही समझाते कि तेरा तो कुछ भी नही हमने इससे ज्यादा भरा हैं। हसता और ठीक है कहके
काम कि दुनियाँ मे निकाल जाता इस तरह की बातो को सुनकर किसी के कुछ समझ में नही आ
रहा था। एक फोन आया जिसके फोन में आया वो पड़ोस के ही थे जो ये सारी बाते बता रहे
थे। उनहों ने हाँ में जवाब दिया कि यहाँ पर सब लोग आ चूके हैं उनके चाचा बड़े भाई
वैगरा भी।
उधर से आवाज थी कि हम लोग चीलघर से निकाल
चुके हैं। पड़ोसी ने पूछा कि किस तरह से आ रहे हो वही से एंबुलेंस ले लिया हैं। बड़े
भाई की आंखो में पाने सा ऊतर आया था। उन्होने अपने अगूठे के बगल वाली ऊंगली से
बहते पानी को साफ कर लिया। कठोर दिल भी कमजोर पड़ता जा रहा था। सविता का अब तक
रो-रो कर बुरा हाल बन गया था।उसे तो अब अपने भी पराए लाग्ने लगे थे। सविता की बुआ
इस वक्त उसको हर तरह से समझने की कोशिश करती। कि अब इन तीनों बच्चो को देख कि
चुप्पी मे रहते हुए गुमसुम हैं।
सविता को ये सारी बाते बेमाने सी लगती।
कौन किसका हैं? बुआ तो सिर्फ दिलासा ही दिला सकती थी वो भी उन सारे दरदों की
जी चुकी थी। जिसको सविता अब जीयेगी। बड़ा भाई अपने भतीजो को गले लगाते हुए अपनी
आंखो में आँसू भर आए यह कहते हुए की अभी तुम्हारा बड़ा पापा जिंदा हैं। पड़ोसी ने
आवाज दिया घर का दरवाजा बंद कर दो लास आ चुकी हैं मोड पर हैं पेड़ के नीचे दरी बिछा
दो चबूतरे मे पड़ी दरी को बिछा दिया बच्चों के अंदर भेज कर दरवाजा बन्द कर दिया।
सारी औरते अभी सविता को दिलासा देने के साथ साहस के साथ जीने के लिए प्रेरित कर
रही थी।
एक सफ़ेद गाड़ी आ कर रुकी जिसमे देवा का
शरीर एक सफ़ेद कपड़े में लिपटा हुआ था। उसका पोस्ट्मार्डम होने की वजह उसकी काया में
बिलकुल जान भी नही थी। जीतने समझदार लोग थे उन्होने कहा की जल्दी करो नही तो बच्चे
परेशान हो जाएंगे सभी ने हा में जवाब दिया। पंडित जी जैसा कहते गए वैसा ही होने
लगा। देवा के चाचा ने कहा की चलने से पहले बच्चों को तो दिखा दो पंडित जी ने देवा
का मुँह खोल दिया। दरवाजा खुला तब सविता को पता चला लास आ चुकी थी। बाहर एक शांति
का महोल था। दरवाजा खुलते ही आवाजों के बादल फाट पड़े सविता तो कटी मछली की तरह
तिलझ पड़ी उसके कदमो के पास एक विलाप के साथ।
तुमने ये क्या किया? किसके
सहारे हमको छोड़ा? बच्चे क्या करेंगे कम से कम इनका ख्याल तो
किया होता? तुमने हमे क्यो नही बताया?
हमे किन जन्मो की सजा दी हैं? सवाल बहुत थे। जवाब किसी का
नही था। सारे नाते रिसतेदार एक चुप्पी के साथ सबकुछ सुने जा रहे थे। सविता के पिता
जी अपने बेटी के विलाप को देख कर गम के आँसू पीए जा रहे थे उनमे साहस नही था की वो
बेटी का पास जाकर कुछ कह पते कई तस्वीरे खीच गई। किसी बुजुर्ग ने कहा चलो उठाओ समय
बहुत कम हैं। परिवार के लोग बढ़े देवा के लास को मचान मे रख कर बतासे मखाने फेकते
हुए जनाज़े को समशान घाट की तरफ ले कर चल दिए। सविता उल्टा पछाड़ी खाते हुए काफी दूर
तक पीछा किया। उसका पीछा करना ब्यर्थ था।
गली भी खामोश लोग भी खामोश,
हिन्दू रीति रिवाज से राम राम सत्य हैं। सत्य बोलो मस्त हैं। इस तरह से कुछ कहते
हुए अपने एरियाँ के समशान घाट पहुँच गए। जो भी पंडित जी कहते गए वो होता गया। उनके
बड़े भाई मौन रखते हुए सारे कामो को करते गए देवा की लास एक लकड़ी के ढेर में बादल
गई अब बाकी था। उस ढेर का जलना सो कुसा से आग लगा दिया गाय सभी ने हवन फूलों गंगा
जल से स्वागत करते ही लाल लपट के साथ अग्नि जल उठी। कहावतो में भी सुनने को मिलता
हैं अग्नि के गाल में जो भी गया वापस नही आया। रह जाता हैं तो सिर्फ मिट्टी में
मिलने के रख जिसको आखरी अक्स के रूप देखा जाता हैं।
करीब सभी एक घंटे तक वही समशान घाट में
जलती लपटो को मशूस करते रहे। एक वार्तालाप के साथ की पता नही क्यो? इसने
ऐसा किया बच्चों में भी कमी तो नही थी। अरे घर बनाया था कर्जा हो गया था तो हम
लोगो से एक बार तो कहता कि कर्जा देना हैं। पचास साठ हजार कोई कर्जा होता हैं।
सविता के पापा ने कहा यही बता उसके मामा ने कहा। यही क्या सभी कहते कि पागल पन
वाला काम किया हैं। बड़े भाई ने कहा बिलकुल पागल पन वाला काम किया हैं। कभी तो हमसे
बताया होता मै तो उसके मरने की खबर को झूठा ही मान रहा था इस वजह से मै अपने बीबी
बच्चों को लेकर नही आया की ये खबर सच होगी।
पंडित ने आवाज दिया। कहा कि अब आप लोग जा
सकते हो। कल पाँच सात लोग आकार इनकी अस्थियों को ले जाना साथ म्रत्यु प्रमाण पत्र
भी ले जाना। सभी लोग एक दूसरे के पीछे चलते हुए घर के सामने आए तो देखा की कंडे की
आग जल रही थी थाली मे गुड और नीम की पत्तियाँ रखी थी सभी एक-एक करके आते आँग को
पैर छुआते नीम के पत्ती को खुटकते और गुड खाकर पानी को पीते अंदर साफ सफाई हो चुकी
थी। बहुत खास मेहमान रह गए थे बाकी के सभी
वापस हो चुके थे। सविता के चेहरे पर पीले पन के साथ उदासी थी।